Saturday, March 21, 2015

अम्मा -अदिति की यादों में


   अम्मा - वाजिनी शर्मा जी ,

सत्यवती जी (मेरी अम्मा) का जन्म माणिकराव जी आर्य और पार्वती जी दम्पति के घर में हुआ। माणिकराव जी आर्य को हलीखेड़ में स्थानीय लोग छत्रपति शिवाजी के वंशज कहकर छत्रपति के  नाम से ही बुलाते थे।
        हलीखेड़ (कर्नाटक बीदर के समीप) में भाई बंसीलाल और उनके मामा माणिकप्रसाद वकील का बड़ा परिवार रहता था। दुबे परिवार के नाम से प्रसिद्ध था। बंशीभाई, श्यामभाई माणिकराव जी के घनिष्ठ मित्र थे। इन दोनों भाईयों ने बीदर में आर्य समाज की ज्योति जलाई। कई पाठशालाएँ, व्यायामशालाएँ, वाचनालय आदि स्थापित किये। सैकड़ों कर्मठ नवयुवकों का संगठन तैयार किया। बंशीभाई एवं माणिकराव जी को गॉव के लोग लंगोटिया यार कहते थे। माणिकराव जी की पत्नी पार्वती और बंशीभाई की पत्नी विद्यावती में प्रगाढ़ स्नेह था। विद्यावती जी शिक्षित थीं। पार्वती जी को वे आर्यसमाज के बारे में बताती थी।
        बंशी भाई का घर माणिकराव जी के घर के समीप था। दोनों परिवारों में सत्यवती अकेली कन्या थी। दो वर्ष के बाद बंशी भाई के घर में कन्या का जन्म हुआ जिसका नाम सुशीला रखा गया। जब सत्यवती 5 वर्ष की थीं तो माणिकराव जी उन्हें बेगमपेट गुरूकुल ले गए। यह गुरूकुल तारा देवी जी एवं मोहन शंकर जी की देखरेख में चलता था। एक दो वर्ष गुरूकुल में रहीं। पं. धारेश्वर जी और उनकी पुत्री शान्ता धारेश्वर वहाँ संस्कृत का अभ्यास कराती थीं।
        सन् 1935 में श्यामभाई और बंशीभाई ने कुछ बालिकाओं को गुरूकुल हाथरस भेजने की योजना बनाई और दस कन्याओं को गुरूकुल हाथरस छोड़ आए। दस कन्याओं में सत्यवती, सुशीला गायत्री, जानकी, कमला, सुभद्रा, प्रतिभा आदि थे।
        सन् 1942 में महात्मा गाँधी ने भारत छोड़ो आन्दोलन प्रारम्भ किया उसमें हाथरस गुरूकुल की माताजी ने भी योगदान दिया। ‘‘असहयोग आंदोलन’’ के लिए गुप्तरूप से कार्य करने की आवश्यकता थी।  माताजी ने तत्काल कुछ कन्याओं को बंद कमरे में बिठाकर हजारों पैंफलेट लिखवाए, इस रहस्य को प्रकट नहीं होने दिया। गाँधी जी की विचारधारा से प्रभावित करोड़ों देशवासियों का सहयोग भारत छोड़ों आन्दोलन में रहा। इस प्रकार आर्य सत्याग्रह में, असहयोग आन्दोलन में माता लक्ष्मी देवी ने जी का योगदान रहता था।
        सत्यवती लगभग 9 वर्ष हाथरस गुरूकुल में रहकर अपनी पढ़ाई पूरी कर दिसम्बर 1943 में स्नातिका बनी, गुरूकुल की उपाधि विद्याविभूषिता थी। विद्याध्ययन के पश्चात् अपने पिताजी के साथ हलीखेड़ गांव पहुँची।
        बंशीभाई ने ‘‘एडशी’’ में लड़को का गुरूकुल स्थापित किया था। पं. ऋभुदेव जी शर्मा सन् 1939 के आर्य सत्याग्रह में उत्तर प्रदेश से जेल में गए थे। उत्तर भारत के कांग्रेस आन्दोलन में भी भाग लेते रहे थे। वे बंशीभाई के सम्पर्क में आए, उन्हें एडशी  गुरूकुल का आचार्य बनाया। बंशीभाई के प्रयत्न से ऋभुदेवजी का विवाह सत्यवती से सन् 1944 में हुआ। विवाह के पश्चात् वे एडशी गई। विवाह के समय उनका नाम बदलकर ‘‘वाजिनी’’ कर दिया और यही नाम प्रचार में आ गया।
        यहीं से उनकी जीवन यात्रा प्रारम्भ हुई। पंडितजी एडशी गुरूकुल छोड़कर श्रीपद दामोदर सातवलेकर जी के ‘‘स्वाध्याय मंडल’’ औंध जिला सतारा में स्थापित संस्था में वेदभाष्य का कार्य करने लगे। सातवलेकरजी ने इस दम्पति की गृहस्थी बसाई और उन्हें पिता का स्नेह दिया। लगभग सात महीने याहँ रहने के पश्चात् वाजिनी अपने पिताजी के घर आई। पंडित जी भी सन् 1945 में हैदराबाद आ गए। हैदराबाद में अनेक लोगों से परिचय हुआ। 1945 में वाजिनी जी की प्रथम पुत्री का जन्म हुआ। इसी समय पं. बंशीलाल जी व्यास ने गुरूकुल घटकेश्वर की चर्चा की आर्यसमाजी विचार के मारवाडी सेठों से परिचय कराया।
        तीन मास की पुत्री को लेकर वैदिकाश्रम आर्य बेगमपेठ हैदराबाद पहली बार पहुँची वाजिनी जी। वैदिकाश्रम आर्य प्रतिनिधि सभा के आधीन था। धारेश्वर जी, उनकी पुत्री शांता धारेश्वर वैदिकाश्रम चलाते थे। पं. मनोहरलाल जी ने वाजिनी जी को यहाँ नियुक्त किया। धारेश्वर जी घूम-घूम कर चन्दा लाते। रानी बरकतराय ने अपने नाम से एक हाल बनवाया। बंशीलाल जी व्यास की देख-रेख में भवन निर्माण का कार्य शुरू हुआ। गरीब, अनाथ कन्याएँ रहती थीं। कोई धन से, कोई धान्य से तो कोई वस्त्रादि से सहायता करता था। धारेश्वर जी बहुत परिश्रम करते थे।
        सन् 1945 में नलगोंडा में एक उपदेशक विद्यालय की स्थापना की गई जिसका उद्देश्य वैदिक धर्म के प्रचारकों को तैयार करना था। पं. नरेन्द्र जी ने 1946 में पं. ऋभुदेव जी को उपदेशक विद्यालय का आचार्य बनाकर भेजा। 1946 में वरंगल में विनायकराव जी की अध्यक्षता में पांचवाँ आर्य सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में अनेक महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित हुए। महिला सम्मेलन की अध्यक्षता वाजिनी जी ने की। इसी वर्ष एक विशेष बात यह भी हुई कि साम्प्रदायिक दंगों के कारण जितने भी आर्य समाजी हिन्दू भाईयों को जो लम्बी सजा भुगत रहे थे मुक्त कर दिया गया।
        सन् 1947 वर्ष प्रारम्भ हुआ, निज़ाम सरकार ने बहुसंख्यक हिन्दुओं पर अत्याचार करना प्रारम्भ किया। पं. नरेन्द्र जी ने नलगोंडा में उपदेशक विद्यालय में शर्मा जी को भेज दिया था। नलगोंडा की आम सभा में शर्मा जी ने निज़ाम के विरूद्ध भाषण दिया तो उन्हें गिरफ्तार कर एक अवांछनीय व्यक्ति कह जेल में न डालकर निज़ाम की सीमा से बाहर शोलापुर पुलिस के संरक्षण में भेज दिया। शर्मा जी उत्तर प्रदेश के निवासी थे, स्थानीय नहीं थे। उन दिनों वाजिनी जी बेगमपेढ वैदिकाश्रम में थीं। उनकी दूसरी पुत्री का जन्म हो चुका था। आर्यभानु पत्रिका द्वारा शर्मा जी का समाचार उन्हें मिला।
        वाजिनी जी की प्रथम पुत्री के जन्म के बाद ही उनकी माताजी का देहान्त प्लेग में हो गया। उनके पिताजी ने दूसरा विवाह कर लिया था। वे वाजिनी जी की दो पुत्रियों तथा तीन बहनों एवं एक भाई को पंडितजी के पास बार्शी में छोड़ गए। हलीखेड़ में माणिकराव जी की जान को खतरा था। वे दो बच्चों और माताजी के साथ गाँव में थे। उन सबको लेकर वे बार्शी पहुँचे। तब तक पंडित जी भी बार्शी छोड़कर सूपा गुरूकुल जा चुके थे। वहाँ पर पंडितजी को व्याकरण, संस्कृत एवं वेदों के अध्यापन का कार्य मिला।
        पंडितजी ने बातचीत करके हाथरस गुरूकुल में वाजिनी जी दोनों बच्चियों तथा तीन बहनों के रहने का प्रबन्ध किया। माणिकराव जी पत्नी समेत तीन बच्चों के साथ सूपा गुरूकुल में ही थे। 14 सितम्बर 1948 के दिन निज़ाम स्टेट भारत सरकार में विलय हुआ तो माणिकराव जी गाँव चले गए। 1949 में पंडितजी बच्चियों को लेकर हैदराबाद आ गए। वाजिनी जी की तीनों बहनें हाथरस गुरूकुल में ही रहकर पढ़ाई करने लगीं।  ! 1954 में सावित्री बहन स्वातिका बन कर आ गई। एक बहन का देहान्त  हैदराबाद में हो गया !
        15 अगस्त 1947 को देश स्वतंत्र हुआ और 17 सितम्बर 1948 के दिन हैदराबादवासियों को भी निज़ाम से मुक्ति मिली। पंडितजी हैदराबाद में मारवाड़ी उदार सज्जनों के यहाँ दो समय भोजन कर लेते, कुछ इच्छुक व्यक्तियों को पढ़ाते, आर्य समाज का प्रचार कार्य करते हुए जीवनयापन कर रहे थे। 31 दिसम्बर 1951 को तीसरी संतान पुत्र होने पर वाजिनी जी ने कन्या गुरूकुल छोड़ दिया। सब लोग पीलखाने में किराए से रहने लगे।
        सन् 1952 में वाजिनी जी को सावित्री कन्या उन्नत पाठशाला में कोत्तूर सीतय्याजी के अनुग्रह से हिन्दी अध्यापिका के पद पर नियुक्त किया गया। पंडित जी भी केशव मेमोरियल हाईस्कूल में संस्कृत एवं हिन्दी अध्यापन कार्य करने लगे। पौरोहित्य करते, श्रावणी पर्व पर यज्ञ कराते, रात्रि पाठशाला में हिन्दी पढ़ाते, कृष्णगंज आर्य समाज का दशहरे पर जुलूस का कार्य मोहन लाल उपाध्याय के साथ कराते थे। आर्यसमाज का अच्छा प्रसार हो रहा था।
        गुरूजी (वैद्य तुलजाराम जी) के अनुग्रह पर मलकपेढ में दयानन्द उपदेशक विद्यालय के निकट 5.. गज़ भूमि ली, एक छोटा सा घर बनाया। वहाँ पर कई आर्यसमाजी विचार के व्यक्ति थे। उपदेशक विद्यालय भी बन रहा था। रात्रि में इच्छुक लोगों को पढ़ाते भी थे। ईश्वरेच्छा बलीयसी, भवन निर्माण होने से पूर्व 17 जनवरी 1970. में पंडितजी का देहावसान हो गया।
        सर्वे भवन्तु सुखिनाः सर्वे सन्तु निरामयाः।
        सर्वे भद्राणि पश्यन्तु माकश्चिद दुःखभाग भवेत।
        ओम शांति शांति।
        यहाँ से वाजिनी जी का एकाकी जीवन अपने बच्चों को पढ़ाने और उन्हें उत्तम जीवन देने में व्यक्ति हो गया। पाँच संतान अपनी अपनी गृहस्थी में रम गए।
        प्रथम पुत्री - वशिनी ने विमेन्स कॉलेज से बी.एस.सी. और उस्मानियाँ विश्वविद्यालय से एम.. किया। हिन्दी प्रचार सभा की भूषण परीक्षा में राजर्षि टंडन स्वर्ण पदक प्राप्त किया। विवाह श्री सीताराम जी शास्त्री से मई 1967 में हुआ। वशिनी ने भाषा विज्ञान में पी.एच.डी. की। दोनों केन्द्रीय हिन्दी संस्थान में कार्यरत थे। शास्त्री जी रीडर के पद से रिटायर्ड हुए। उनका निधन सन् 2000 में हुआ। इनकी तीन संतानों में से बड़ा मनुकान्त शास्त्री आगरा में कॉलेज में रीडर के पद पर कार्यरत है। दूसरा विक्रान्त शास्त्री एक संस्था में निदेशक है। तीसरी संतान उपासना कम्प्यूटर कार्य में दक्ष थी उसका 2001 में देहान्त हो गया।
        द्वितीय पुत्री - अदिति ने कमला नेहरू पालिटेक्निक कॉलेज से सिविल इंजीनियरिंग डिप्लोमा में स्वर्ण पदक प्राप्त किया। रोड्स एण्ड बिल्डिंग में हेड आफ दि सेक्शन के पद से 2005 में रिटायर्ड हुई। दो पुत्र हैं रामनाथ और रघुनाथ दोनों अमेरिका में अच्छी कम्पनियों में कार्य करते हैं। पुत्रवधुएँ भी कार्य करती हैं। अदिति के पति सुरेन्द्र जी का 2010. में देहान्त हो गया।
        तृतीय पुत्र - महिरत्न शर्मा की प्रारम्भिक शिक्षा केशव स्मारक विद्यालय में, न्यू साइंस कॉलेज से बी.एस.सी. (स्पेशल) पास की। गाँधी जन्म शताब्दी पर निबन्ध लेखन प्रतियोगिता में स्वर्णपदक तत्कालीन प्रधानमंत्री गुलजारी लाल नन्दा के हाथों से दिल्ली में प्राप्त किया। सेंट्रल गवर्नमेंट की नौकरी में कार्यरत था। अब सेवानिवृत्त है। पत्नी एम.एस.सी., बी.एड. परीक्षा पास है। केशव स्मारक विद्यालय से सेवा निवृत्त हुई पुत्र अभिजीत इंजीनियर है और पुत्री अर्पिता भी इंजीनियर है। दोनों कम्पनियों में कार्यरत हैं। अभिजित की एक पुत्री है।
        चतुर्थ पुत्र - धनजंय का जन्म 1953 में हुआ। 11 मास की आयु में देहान्त हो गया।
        पाँचवा पुत्र - विभावसु शर्मा का जन्म 27 सितम्बर 1958 में हुआ। हिन्दी एम.. उस्मानिया विश्वविद्यालय में किया। आन्ध्रा बैंक में हिन्दी ऑफिसर के पद पर कार्यरत था। 2001 में वी.आर.एस. लिया। एक पुत्री और एक पुत्र हैं। पुत्र अभिषेक अमेरिका में इंजीनियर है, 17 दिसम्बर 2014 को उसका विवाह हुआ। पुत्री इंजीनियर अन्तिम वर्ष में है।
        छठी पुत्री - शुष्मिणी शर्मा (श्रीवास्तव) का जन्म 13 अगस्त 1961 में हैदराबाद में हुआ। प्रारम्भिक शिक्षा केशव स्मारक बालिका विद्यालय व नवजीवन बालिका विद्यालय में हुआ। एच.एस.सी. में हिन्दी विषय में स्वर्ण पदक प्राप्त किया। शुष्मिणी ने ओ.यू. से एम.. किया।
        वर्तमान में इंडियन एयर लाइन्स में हिन्दी अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं। पति श्री गोपाल श्रीवास्तव जी महेश बैंक से ए.जी.एम. के पद पर कार्यरत थे। हाल ही में 2014 दिसम्बर में रिटायर हुए। शुष्मिणी की दो पुत्रियाँ हैं। एक का विवाह हो चुका है, उसके एक पुत्र है। दूसरी पुत्री एक कंपनी में कार्यरत है।
        वाजिनी जी छोटी काठी की नारी थी। बहुत गौरवर्णी, सहृदय और मितभाषी थी। जीवन के शुरूआती वर्षों में उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा। हैदराबाद में स्थिर नौकरी मिलने के बाद ही उन्हें कुछ राहत मिली। परन्तु 1970 में पंडितजी के असमय निधन से उन्हें फिर कष्टों का सामना करना पड़ा। उन्होंने कभी धैर्य नहीं खोया। बच्चे छोटे-छोटे थे। उन्हें पढ़ा लिखा कर उनकी शादियाँ की। रिटायरमेंट के बाद विभावसु के परिवार के साथ रहीं। अदिति के पति के देहान्त के बाद अदिति के फ्लैट में रहकर स्वाध्याय करती थीं। कभी सामान्य माँ नहीं लगी क्योंकि जीवन मूल्य और आदर्शों का निर्वाह सर्वोपरि रहा।
        अन्तिम दिनों में वे सब बच्चों के साथ विभावासु के पुत्र अभिषेक के विवाह की तैयारियों में भाग ले रही थीं। शादी 17 दिसम्बर 2014 को होने वाली थी। ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था। 29 नवम्बर को उन्होंने शादी के बारे में अपनी बहू से परामर्श किया और उन्हें कुछ सुझाव भी दिये।  शाम तक दोनों पुत्रियाँ भी विवाह संबंधी चर्चा करती रही ।मन से खुश थी पर शरीर ने साथ नहीं दिया। 3. नवम्बर 2014 को रात में 7.15 मिनट पर हृदय गति रूकने से उनके प्राण परवेरू उड़ गए।

ओम् शन्ति शन्ति शन्तिः